संहार- कलयुग के रावण का















    


पराक्रमी और अभिमानी,
दंभी पंडित और ज्ञानी,
मर्यादा को हरने वाला,
उस युग में राम से मरता है।।

सत्य धर्म की अमर विजय को 

जन-जन स्मरण करता है,
न्याय धर्म की रक्षा हेतु,
अब कोई राम ना बढ़ता है।

त्रेता युग का रावन तो 

इस युग में भी मरता है।
कलयुग के रावण का क्या 
जो गली गली में पलता है।।

नैतिकता का करे पतन 

मर्यादा का उल्लंघन
पापी,दुष्ट,दुराचारी
दुष्कर्म से जो ना डरता है।

सत्य असत्य की आंख मिचोली,

धर्म न्याय की लगती बोली,
मन से रावण पहन मुखौटा,
हनन मान का करता है।।

कलयुग के हर रावण का 

आओ मिल संहार करें।।
विजयदशमी के अवसर को,
सार्थक और साकार करें,
श्रीराम से ले प्रेरणा,
कलयुग का उद्धार करें।

मानवता के धर्म का पालन ,

हर जन का कर्म ये बनता है,
सतकर्म धर्म को माने जो,
हर जन्म सफल वो करता है।।

By:Dr.Anshul Saxena














Comments

Unknown said…
Very very nice poem.Well expressed.👍👌👌
Nishant said…
Very nice poem. Very true👍👍👍
Arohi said…
Very nice.....well expressed

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