गृहणी (Grahani)
गृहणी (Grahani)
कभी तंगी में कभी मंदी में
कभी बंधन में पाबंदी में
कभी घर गृहस्थी के धंधे में
कभी कर्तव्यों के फंदे में,
ख्वाहिश उसकी झूल गई।
अपनों की परवाह करने में,
वह खुद खुद को ही भूल गई।
दूर पास के रिश्ते में
महंगा राशन हो सस्ते में
बच्चों और उनके बस्ते में
दिन भर वो उलझी रहती है
खाली रहती हो,
क्या करती हो?
ताने सुनती रहती है।
तानों के ताने-बाने में
घर अपना स्वर्ग बनाने में
जीवन अपना ही भूल गयी।
अपनों की परवाह करने में,
वह खुद खुद को ही भूल गई।
दिन दिन भर वो काम करे,
सोचे वो कब आराम करे?🤔
छुट्टी नहीं पगार नहीं,
उसका कोई इतवार नहीं।
पुरुषों से जिसका तोल नहीं,
अनमोल है उसका मोल नहीं।
ॠणी हैं सब उस गृहणी के
दुनिया यह कैसे भूल गयी?
अपनों की परवाह करने में,
जो खुद खुद को ही भूल गई।
Dr.Anshul Saxena
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