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Sashakt Naari ( सशक्त नारी)

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 सशक्त नारी एक नारी के जीवन के विविध रंग जितने दिखते हैं उससे कहीं अधिक गहरे होते हैं। नारी का अस्तित्व उसकी योग्यता या अयोग्यता को सिद्ध नहीं करता बल्कि जीवन में उसके द्वारा किए गए त्याग और उसकी प्राथमिकताओं के चुनाव को दर्शाता है। कहते हैं जीवन में सपना हो तो एक ज़िद होनी चाहिए और इस ज़िद पर डट कर अड़े रहना होता है। लेकिन एक नारी कभी सपने हार जाती है तो कभी सपनों को पूरा करने में अपने हार जाती है। नारी तो कभी अपने बच्चों में अपने सपने ढूंढ लेती है तो कभी परिस्थितियों से सामंजस्य बिठाकर अपनी खुशियों का बहाना ढूंढ लेती है। ऐसे में कभी कभी वह परिस्थितियों से छली जाती है तो कभी अपनों से ठगी जाती है। नारी के त्याग को उसकी कमज़ोरी समझने वालों के लिए  प्रस्तुत हैं मेरी यह चार पंक्तियां- ज़िद थी उड़ान की मगर अड़ नहीं पाई, मतलबी चेहरों को कभी पढ़ नहीं पाई, तुम क्या हराओगे उसे जो हर हार जीती है, अपनों की बात थी तो बस लड़ नहीं पाई।।

असली खुशी (Asli Khushi)

कहानी :असली खुशी

किरदार:  दिवाकर सिन्हा और मोहन


यह कहानी दो ऐसे व्यक्तियों पर आधारित है जिनकी सोच एक दूसरे से बिल्कुल विपरीत थी। एक दिवाकर सिन्हा जो सरकारी अध्यापक हैं। दूसरा मोहन जो एक छोटी सी कंपनी में कोई छोटा मोटा काम करता है। 

दिवाकर वर्मा जी कुछ परेशान से अपने घर में इधर-उधर टहलते हुए अपने किसी दोस्त से फोन पर बातचीत करते हुए कहते हैं," अरे यार यह कोरोना ने कहां फंसा दिया? थोड़ी बहुत ट्यूशन आ रही थी वह भी आना बंद हो गई। ना कहीं आ सकते हैं न जा सकते हैं। खुद भी घर में बंद हो गये। इधर मेरी धर्मपत्नी भी इस बात को लेकर काफी परेशान है कि उन को मंदिर जाने को नहीं मिल रहा। और सही बात  भी है पूजा-पाठ के बिना मन को शांति कैसे मिले?" बातचीत में उनके दोस्त ने उधर से कुछ कहा जिसके उत्तर में दिवाकर जी बोले क्या बात कर रहे हो तुम्हारा धंधा भी मंदा हो गया? लाखों का धंधा हजारों में आ गया। पता नहीं कोरोनावायरस क्या क्या दिन दिखाएगा?"

 फोन पर बातचीत करते-करते दिवाकर को कुछ संगीत की ध्वनि सुनाई दी जो उन के घर के पीछे बने छोटे से घर से आ रही थी। यह घर मोहन का था जो एक किसी कंपनी में छोटी सी नौकरी करता है। उत्सुकता वश दिवाकर ने बाउंड्री से झांक कर देखा तो मोहन अपने बच्चों के साथ संगीत की धुन पर बड़ी खुशी के साथ नाच रहा था। 

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दिवाकर से यह देख कर रहा नहीं गया और उन्होंने दूर से ही मोहन से पूछा, "मोहन ओ मोहन! 2 महीने से घर में पड़े हो। अब कट कटा के थोड़े बहुत पैसे मिलते हैं। आखिर किस बात की खुशी मना रहे हो?"


मोहन ने भी खुशी से जवाब दिया खुशियां पैसे की मोहताज कब से होने लगी,सर? मैं तो जिंदा रहने की खुशी मना रहा हूं। अभी मेरे पास खुश रहने की तमाम वजह हैं। रहने के लिए घर है।खाने के लिए खाना है। पहनने के लिए कपड़े हैं। एक स्वस्थ शरीर है। पूरा परिवार साथ में है। अब आप ही बताइए जब तक शरीर में है दम तब तक हैं हम। जब परिवार है संग तो किस बात का गम? जब तक जीवन है उसे भरपूर जीना चाहिए।" 

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दिवाकर मोहन की बात सुनकर मुस्कुरा दिए और चुपचाप घर की ओर मुड़ गए। लेकिन मोहन की सोच ने उन्हें सोचने पर मजबूर कर दिया कि जब मोहन इतना खुश रह सकता है तो वह खुद क्यों नहीं? 

 दिवाकर के पास तो अच्छी खासी तनख्वाह आ रही थी। थोड़े बहुत ट्यूशन ना आने से वह इतने परेशान दिख रहे थे। मोहन की सोच ने दिवाकर को यह भी जता दिया कि पैसे की ताकत से बड़ी ताकत अपने शरीर और अपनों का साथ होता है। 

सही तो है इस संकट की घड़ी में भी खुश रहने की तमाम वजह हैं। क्यों ना जब तक जीवन है उसे पूरी तरह जिया जाए। जिंदगी में यदि कुछ नहीं है या कुछ नहीं मिल पा रहा है उसका दुख करने से अच्छा है जो है उसको बेहतर बनाया जाए और हर परिस्थिति में खुश रहा जाए।

Dr. Anshul Saxena

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असली खुशी



Comments

  1. Behtareen 👏👏this is the key to real happiness.😊

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