नारी - एक चिंगारी ( Naari Ek Chingari)
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बचपन को जहाँ बोया था मैंने,
यादों को जहाँ संजोया था मैंने,
लाँघ वो दहलीज़ पीहर छोड़ा था मैंने,
जब एक अटूट बंधन जोड़ा था मैंने,
हर पुरानी चीज़ की जब बात आती है,
ईंट और दीवार की भी याद आती है।।
बरसों बरस जहाँ बिता दिये मैंने,
बरसों से वो आंगन देखा नहीं मैंने,
मन की चिररइया जब तब वहां घूम आती है,
कभी कभी आँख जब झपकी लगाती है।।
वो मोड़ वो राह तब छोड़ दी मैंने,
ज़िम्मेवारी की चादर जब ओढ ली मैंने,
वो हंसी ठिठोली आज भी बड़ा गुदगुदाती है,
बीते हुए लम्हों की जब आवाज़ आती है।।
भाई बहन वो बिछड़ी सहेली,
झूठी शिक़ायतों वाली मीठी सी बोली,
तपते बुख़ार में पिता की हथेली,
माँ की स्नेह और परवाह वाली झोली,
कौन सी बेटी ये भूल पाती है
पीहर की डोर कब छूट पाती है।।
हर पुरानी चीज़ की जब बात आती है,
ईंट और दीवार की भी याद आती है।।
Very very heart touching words.man ki Baaton ki shabdon ke dwara bahut sunder abhivyakti.
ReplyDeleteThank you so much for your comments 😊🙏
DeleteBeyond words....awesome awesome n awesome...very toching intense n bhavyukt rachna👌👌👌👌👌
ReplyDeleteThanks a lot😊🤗
Deleteबहुत ही उत्तम रचना है।
ReplyDeleteहम भी आपका सृजन देखकर सीखने की कोशिश कर रहे हैं ..
धन्यवाद!
Deleteआप तो स्वयं उत्तम रचनायें लिखते हैं।