दस्तूर रिश्तों का (Dastoor Rishton ka)
दस्तूर रिश्तों का (Dastoor Rishton ka)
जो अकड़ जाता है,
खुद में जकड़ जाता है,
अपनों का मर्म ताउम्र,
ना पकड़ पाता है।।
आंकते निकालते
औरों की ग़लतियाँ,
ख़ुद के आँकलन से
मुकर जाता है।।
लाख़ दिख़ावा करे
वो बन के हितैषी
झूठ का मुखौटा मग़र
उतर जाता है।।
बुराइयां निकालते,
झूठ को सच मानते।
दूरियों के दलदल में,
फ़िसल जाता है।।
सच का आइना,
जब नज़र आता है,
वक्त बहुत दूर,
गुज़र जाता है।।
दूसरों के चश्मे से,
ग़र देखते रहे,
खुद का नज़रिया,
कब नज़र आता है।।
खोखले रिश्तों का कैसा,
हो चला दस्तूर,
ग़ैर से पहले अपना ही,
बदल जाता है।।
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