नारी - एक चिंगारी ( Naari Ek Chingari)
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तुझे जीने की ख़्वाहिश रेत की तरह ,
मेरी बंद मुट्ठी से फ़िसल जाती है ,
मेरी ग़ुजारिशें तुझे थामना चाहें,
तू बड़ी रफ़्तार से चलती ही जाती है ।
ऐ ज़िंदगी तू कितना सताती है ।।
क्यों हम अपनों से रूठ जाते हैं ?
क्यों ग़ैरों के साथ, तुझे हंस के बिताते हैं?
कभी तू समझ नहीं आती,
कभी तू मुझे समझ नहीं पाती है।
ए ज़िंदगी तू कितना सताती है ।।
अभी तो तुझे और पाना है,
अभी अपनों को अपना बनाना है ,
कहां तेरा ठौर ठिकाना है?
मिन्नतों की दस्तक तू सुन नहीं पाती है।
ऐ ज़िंदगी तू कितना सताती है ।।
चल छोड़ के शिक़वे,
तुझे थोड़ा सा जी लूं मैं ,
तू कहां मिलने बार-बार आती है,
ता उम्र जो समझ नहीं आती ,
तेरी क़दर तेरे बाद आती है ।
ऐ ज़िंदगी तू कितना सताती है ।।
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